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Tuesday, October 29, 2019

अरिहंत: अठारह दोष रहित

जन्म (1) जरा (2-बुढ़ापा) तिरखा (3-प्यास) क्षुधा (4-भूख), विस्मय (5-आश्चर्य) आरत (6-पीड़ा ) खेद (7-पीड़ा)।

रोग (8)  शोक (9) मद (10-गर्व) मोह (11) भय (12),निद्रा (13) चिन्ता (14) स्वेद (15-पसीना)।।

राग (16)  द्वेष (17) अरु मरण (18) जुत,ये अष्टादश (18) दोष।

नाहिं होत अरिहंत के,सो छवि लायक मोष।।

ये अठारह दोष नहीं  होते हैं।  जन्म, बुढ़ापा, प्यास, भूख, आश्चर्य, पीड़ा, दु:ख, रोग, शोक, गर्व, मोह, भय, निद्रा, चिन्ता, पसीना, राग, द्वेष, मरण

Sunday, November 25, 2018

Baneria ji jaane ka rasta

Pahle Indore se Depalpur bus stand pahunch jaaye. Uske baad tiin km duur Baneria Ji hain. Aur koi raasta na apnaye kyonki duusare raste kharab ho sakte hai.

Sunday, September 23, 2018

jain vinti (gazal)

जिन धर्म का हर पल पालन हो| x2
अंत समाधि से हो यूं जीवन हो|| x2

दुर्ध्यान से रख पाऊं दूरी| x2
अविरत प्रभु का सुमिरन हो|| x2

मोह कषायें दूर रखूं मैं| x2
सम्यक रत्नों का आलंबन हो|| x2

हर पल जीवन में आस यही| x2
जिन धर्म चर्चा का श्रवण हो|| x2

समता और क्षमा हों आभूषण| x2
सच्चे श्रावक सा जीवन हो||x2

जिन धर्म का हर पल पालन हो| x2
अंत समाधि से हो यूं जीवन हो|| x2
आतिश इंदौरी

Please send your valuable comments at ravikumarjain at gmail.com or whatsapp at 9406630247.

Tuesday, September 18, 2018

Jain grocery list

A
AMCHUR
atta
B
besan
badam
badam pooja
C
chana dal
chaval
चवली/लोबिया
D
KHADA DHANIYA
E

F

G
ghee

H
hing
I

J

K
kaju
kismis
KALI MIRCH

L

M
maithi daana
makhane
mirch khadi
N

O


P



Q

R


S
SAUNF
sugar/boora
sendha namak
T
toor dal

U
URAD DAL DHULI
V

W

X

Y

Z

Monday, September 17, 2018

aarati


यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे ।

पहली आरती श्री जिनराजा, भव दधि पार उतार जिहाजा ।

यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे

दूसरी आरती सिद्धन केरी, सुमरण करत मिटे भव फेरी ।

यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे

तीजी आरती सूर मुनिंदा, जनम मरन दुःख दूर करिंदा ।

यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे

चोथी आरती श्री उवझाया, दर्शन देखत पाप पलाया ।

यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे

चोथी आरती श्री उवझाया, दर्शन देखत पाप पलाया ।

यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे

पाचवी आरती साधू तिहारी, कुमति विनाशक शिव अधिकारी ।

यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे

छट्टी आरती श्री बाहुबली स्वामी, करी तपस्या हुए मोक्ष गामी ।

यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे

सातवी आरती श्री जिनवाणी, ज्ञानत सुरग मुक्ति सुखदानी ।

यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे

आरती करू सम्मेद शिखर की, कोटि मुनि हुए मोक्ष गामी जी ।

यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे

जो यह आरती करे करावे, सौ नर-नारी अमर पद पावें ।

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तुम से लागी लगन, ले लो अपनी शरण, पारस प्यारा,

मेटो मेटो जी संकट हमारा ।

निशदिन तुमको जपूँ, पर से नेह तजूँ, जीवन सारा,

तेरे चाणों में बीत हमारा ॥टेक॥

अश्वसेन के राजदुलारे, वामा देवी के सुत प्राण प्यारे।

सबसे नेह तोड़ा, जग से मुँह को मोड़ा, संयम धारा ॥मेटो॥

इंद्र और धरणेन्द्र भी आए, देवी पद्मावती मंगल गाए।

आशा पूरो सदा, दुःख नहीं पावे कदा, सेवक थारा ॥मेटो॥

जग के दुःख की तो परवाह नहीं है, स्वर्ग सुख की भी चाह नहीं है।

मेटो जामन मरण, होवे ऐसा यतन, पारस प्यारा ॥मेटो॥

लाखों बार तुम्हें शीश नवाऊँ, जग के नाथ तुम्हें कैसे पाऊँ ।

‘पंकज’ व्याकुल भया दर्शन बिन ये जिया लागे खारा ॥मेटो॥
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Paryushan दस लक्षण धर्म

दस लक्षण धर्म

1. क्षमा 14/09/18
2. विनम्रता (मार्दव) 15/09/18
3. माया का विनाश (आर्जव16/09/18
4. निर्मलता (शौच17/09/18
5. सत्य 18/09/18
6. संयम 19/09/18
7. तप 20/09/18
8. त्याग 21/09/18
9. परिग्रह का निवारण (अकिंचन्य) 22/09/18
10. ब्रह्मचर्य 23/09/18

Monday, September 3, 2018

समाधि भावना : दिन रात मेरे स्वामी

समाधि भावना : दिन रात मेरे स्वामी

इसमें कोई संदेह नहीं की किस प्राणी की मृत्यु कब हो जाये, कोई नहीं जानता. अतः हमें हर पल अपने किये हुये दोषों के प्रक्षालन के लिये प्रभु का नाम स्मरण करते रहना चाहिये और प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिये की हे देव मेरा समाधि मरण हो और अंतिम समय में बस आपका ही नाम स्मरण में रहे. हे देव मेरी बस यही प्रार्थना है.

दिन रात मेरे स्वामी, मैं भावना ये भाऊं,
देहांत के समय में, तुमको न भूल जाऊं ।टेक।

शत्रु अगर कोई हो, संतुष्ट उनको कर दूं,
समता का भाव धर कर, सबसे क्षमा कराऊं ।1।

त्यागूं आहार पानी, औषध विचार अवसर,
टूटे नियम न कोई, दृढ़ता हृदय में लाऊं ।2।

जागें नहीं कषाएं, नहीं वेदना सतावे,
तुमसे ही लौ लगी हो, दुर्ध्यान को भगाऊं ।3।

आत्म स्वरूप अथवा, आराधना विचारूं,
अरहंत सिद्ध साधू, रटना यही लगाऊं ।4।

धरमात्मा निकट हों, चर्चा धरम सुनावें,
वे सावधान रक्खें, ग़ाफ़िल न होने पाऊं ।5।

जीने की हो न वांछा, मरने की हो न ख़्वाहिश,
परिवार मित्र जन से, मैं मोह को हटाऊं ।6।

भोगे जो भोग पहिले, उनका न होवे सुमिरन,
मैं राज्य संपदा या, पद इंद्र का न चाहूं ।7।

रत्नत्रय का पालन, हो अंत में समाधि,
‘शिवराम’ प्रार्थना यह, जीवन सफल बनाऊं ।8। Link Audio

Thursday, June 2, 2016

तीर्थंकर चिन्ह


1.श्री ऋषभनाथ-बैल
2.श्री अजितनाथ-हाथी
3.श्री संभवनाथ-घोड़ा
4.श्री अभिनंदननाथ-बंदर
5.श्री सुमतिनाथ-चकवा
6.श्री पदम प्रभु-कमल
7.श्री सुपाश्रर्वनाथ-सांथिया
8.श्री चन्द्रप्रभु-चंद्रमा
9.श्री पुष्पदंत-मगर
10.श्री शीतलनाथ-कल्पवृक्ष
11.श्री श्रेयांसनाथ-गैंडा
12.श्री वासुपुज्य-भैंसा
13.श्री विमलनाथ-शूकर
14.श्री अनंतनाथ-सेही
15.श्री धर्मनाथ-वज्रदंड
16.श्री शान्तिनाथ-हिरण
17.श्री कुन्थुनाथ-बकरा
18.श्री अरहनाथ-मछली
19.श्री मल्लिनाथ-कलश
20.श्री मुनिसुव्रतनाथ-कछुआ
21.श्री नमिनाथ-नीलकमल
22.श्री नेमिनाथ-शंख
23.श्री पाश्रर्वनाथ-सर्प
24.श्री महावीर-सिंह

Wednesday, June 1, 2016

Namokar Dhyan

णमोकार मन्त्र
णमो अरिहंताणं अरिहंतो को नमस्कार हो।
णमो सिद्धाणं सिद्धों को नमस्कार हो।
णमो आयरियाणं आचार्यों को नमस्कार हो।
णमो उवज्झायाणं उपाध्यायों को नमस्कार हो।
णमो लोए सव्व साहूणं लोक के सर्व साधुओं को नमस्कार है।

एसोपंचणमोक्कारो, सव्वपावप्पणासणो
मंगला णं च सव्वेसिं, पडमम हवई मंगलं
यह नमस्कार महामंत्र सब पापो का नाश करने वाला तथा सब मंगलो मे प्रथम मंगल है।
णमोकार मंत्र में 5 पद हैं, जिनमें रंग हैं- क्रमश: श्वेत, रक्त, पीत, नील, श्याम। (Source1, Source2)

चत्तारि मंगल - अरहंता मंगलं, सिध्दा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ॥
अर्थ लोक में चार मंगल हैं (1) अरिहन्त मंगल है (2) सिध्द मंगल है (3) साधु मंगल है । (4) केवली प्रणीत जिन धर्म मंगल है ।

चत्तारिलोगुत्तमा-अरिहंता लोगुत्तमा, सिध्दा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मों लोगुत्तमा ।
अर्थ लोक में चार उत्तम है (2) सिध्द उत्तम है । (3) साधु उत्तम है (4) केवली प्रणीत जिनधर्म उत्तम है ।

चत्तारिशरणं पव्वज्जमि-अरिहंत शरणं पव्वज्जामि, सिध्द शरणं पव्वज्जामि, साहू शरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मंशरणं पव्वज्जामि ।
अर्थ लोक में चारशरण हैं । 1- अरिहन्तों की शरण है । 2- सिध्दों की शरण है । 3- साधुओं की शरण है । 4- केवलि प्रणीत जिनधर्म की शरण है ।

अरिहंतो के 46 मूलगुण होते हैं । सिध्दों के 8 मूलगुण होते है । आचार्यों के 36 मूलगुण होते है। उपाध्यायों के 25 मूलगुण होते है । साधुओं के 28 मूलगुण होते है ।

Monday, May 30, 2016

Bhaktamar Stotra

Bhaktamar Stotra
SN From Wiki From http://sanskarsagar.org
1 भक्तामर प्रणत मौलिमणि प्रभाणा । मुद्योतकं दलित पाप तमोवितानम् ॥ सम्यक् प्रणम्य जिन पादयुगं युगादा । वालंबनं भवजले पततां जनानाम् ॥१॥ 1.भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा-मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्
2 यः संस्तुतः सकल वाङ्मय तत्वबोधा । द् उद्भूत बुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः ॥ स्तोत्रैर्जगत्त्रितय चित्त हरैरुदरैः । स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥ 2.य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा-दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - हरैरुदारै:, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्
3 बुद्ध्या विनाऽपि विबुधार्चित पादपीठ । स्तोतुं समुद्यत मतिर्विगतत्रपोऽहम् ॥ बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दु बिम्ब । मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥३॥ 3.बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित - पाद - पीठ!स्तोतुं समुद्यत - मतिर्विगत - त्रपोऽहम्। बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब- मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम्
4 वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र शशाङ्क्कान्तान् । कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या ॥ कल्पान्त काल् पवनोद्धत नक्रचक्रं । को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥४॥ 4.वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्, कस्ते क्षम: सुर - गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध ्या । कल्पान्त -काल - पवनोद्धत- नक्र- चक्रं , को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम्
5 सोऽहं तथापि तव भक्ति वशान्मुनीश । कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः ॥ प्रीत्यऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं । नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥५॥ 5.सोऽहं तथापि तव भक्ति - वशान्मुनीश! कर्तुं स्तवं विगत - शक्ति - रपि प्रवृत्त:। प्रीत्यात्म - वीर्य - मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम् नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम्
6 अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम् । त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् ॥ यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति । तच्चारुचूत कलिकानिकरैकहेतु ॥६॥ 6.अल्प- श्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम,त्वद्-भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान्माम् । यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चाम्र -चारु -कलिका-निकरैक -हेतु:
7 त्वत्संस्तवेन भवसंतति सन्निबद्धं । पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीर भाजाम् ॥ आक्रान्त लोकमलिनीलमशेषमाशु । सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ॥७॥ 7.त्वत्संस्तवेन भव - सन्तति-सन्निबद्धं,पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् । आक्रान्त - लोक - मलि -नील-मशेष-माशु, सूर्यांशु- भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम्
8 मत्वेति नाथ्! तव् संस्तवनं मयेद । मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् ॥ चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु । मुक्ताफल द्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः ॥८॥ 8.मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद, -मारभ्यते तनु- धियापि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु, मुक्ता-फल - द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दु:
9 आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्त दोषं । त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ॥ दूरे सहस्त्रकिरणः कुरुते प्रभैव । पद्माकरेषु जलजानि विकाशभांजि ॥९॥ 9.आस्तां तव स्तवन- मस्त-समस्त-दोषं,त्वत्सङ्कथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि
10 नात्यद् भूतं भुवन भुषण भूतनाथ । भूतैर् गुणैर् भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः ॥ तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा । भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥ 10.नात्यद्-भुतं भुवन - भूषण ! भूूत-नाथ! भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्त - मभिष्टुवन्त:। तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति
11 दृष्टवा भवन्तमनिमेष विलोकनीयं । नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः ॥ पीत्वा पयः शशिकरद्युति दुग्ध सिन्धोः । क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥११॥ 11.दृष्ट्वा भवन्त मनिमेष - विलोकनीयं, नान्यत्र - तोष- मुपयाति जनस्य चक्षु:। पीत्वा पय: शशिकर - द्युति - दुग्ध-सिन्धो:, क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्?
12 यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्तवं । निर्मापितस्त्रिभुवनैक ललाम भूत ॥ तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां । यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥१२॥ 12.यै: शान्त-राग-रुचिभि: परमाणुभिस्-त्वं,निर्मापितस्- त्रि-भुवनैक - ललाम-भूत ! तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां, यत्ते समान- मपरं न हि रूप-मस्ति
13 वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि । निःशेष निर्जित जगत् त्रितयोपमानम् ॥ बिम्बं कलङ्क मलिनं क्व निशाकरस्य । यद्वासरे भवति पांडुपलाशकल्पम् ॥१३॥ 13.वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि,नि:शेष- निर्जित - जगत्त्रितयोपमानम् । बिम्बं कलङ्क - मलिनं क्व निशाकरस्य, यद्वासरे भवति पाण्डुपलाश-कल्पम्
14 सम्पूर्णमण्ङल शशाङ्ककलाकलाप् । शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति ॥ ये संश्रितास् त्रिजगदीश्वर नाथमेकं । कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥१४॥ 14.सम्पूर्ण- मण्डल-शशाङ्क - कला-कलाप- शुभ्रा गुणास् - त्रि-भुवनं तव लङ्घयन्ति। ये संश्रितास् - त्रि-जगदीश्वरनाथ-मेकं, कस्तान् निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम्
15 चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिर् । नीतं मनागपि मनो न विकार मार्गम् ॥ कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन । किं मन्दराद्रिशिखिरं चलितं कदाचित् ॥१५॥ 15.चित्रं - किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्ग-नाभिर्- नीतं मनागपि मनो न विकार - मार्गम्््् । कल्पान्त - काल - मरुता चलिताचलेन, किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित्
16 निर्धूमवर्तिपवर्जित तैलपूरः । कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटी करोषि ॥ गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां । दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ् जगत्प्रकाशः ॥१६॥ 16.निर्धूम - वर्ति - रपवर्जित - तैल-पूर:, कृत्स्नं जगत्त्रय - मिदं प्रकटीकरोषि। गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश:
17 नास्तं कादाचिदुपयासि न राहुगम्यः । स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति ॥ नाम्भोधरोदर निरुद्धमहाप्रभावः । सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र! लोके ॥१७॥ 17.नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य:, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्- जगन्ति। नाम्भोधरोदर - निरुद्ध - महा- प्रभाव:, सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके
18 नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं । गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम् ॥ विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्प कान्ति । विद्योतयज्जगदपूर्व शशाङ्कबिम्बम् ॥१८॥ 18.नित्योदयं दलित - मोह - महान्धकारं, गम्यं न राहु - वदनस्य न वारिदानाम्। विभ्राजते तव मुखाब्ज - मनल्पकान्ति, विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशाङ्क-बिम्बम्
19 किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा । युष्मन्मुखेन्दु दलितेषु तमस्सु नाथ ॥ निष्मन्न शालिवनशालिनि जीव लोके । कार्यं कियज्जलधरैर् जलभार नम्रैः ॥१९॥ 19.किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा, युष्मन्मुखेन्दु- दलितेषु तम:सु नाथ! निष्पन्न-शालि-वन-शालिनी जीव-लोके, कार्यं कियज्जल-धरै-र्जल-भार-नमै्र:
20 ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं । नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु ॥ तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्वं । नैवं तु काच शकले किरणाकुलेऽपि ॥२०॥ 20.ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरि -हरादिषु नायकेषु। तेजो महा मणिषु याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काच -शकले किरणाकुलेऽपि
21 मन्ये वरं हरि हरादय एव दृष्टा । दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ॥ किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः । कश्चिन्मनो हरति नाथ! भवान्तरेऽपि ॥२१॥ 21.मन्ये वरं हरि- हरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति। किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:, कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि
22 स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान् । नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ॥ सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्ररश्मिं । प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालं ॥२२॥ 22.स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्, नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता। सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मिं, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु-जालम्
23 त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस । मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात् ॥ त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयंति मृत्युं । नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः ॥२३॥ 23.त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस- मादित्य-वर्ण-ममलं तमस: पुरस्तात्। त्वामेव सम्य - गुपलभ्य जयन्ति मृत्युं, नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्था:
24 त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यं । ब्रह्माणमीश्वरम् अनंतमनंगकेतुम् ॥ योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं । ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥२४॥ 24.त्वा-मव्ययं विभु-मचिन्त्य-मसंख्य-माद्यं, ब्रह्माणमीश्वर - मनन्त - मनङ्ग - केतुम्। योगीश्वरं विदित - योग-मनेक-मेकं, ज्ञान-स्वरूप-ममलं प्रवदन्ति सन्त:
25 बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित बुद्धि बोधात् । त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रय शंकरत्वात् ॥ धाताऽसि धीर! शिवमार्ग विधेर्विधानात् । व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि ॥२५॥ 25.बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्, त्वं शङ्करोऽसि भुवन-त्रय- शङ्करत्वात् । धातासि धीर! शिव-मार्ग विधेर्विधानाद्, व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि
26 तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ । तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय ॥ तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय । तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि शोषणाय ॥२६॥ 26.तुभ्यं नमस् - त्रिभुवनार्ति - हराय नाथ! तुभ्यं नम: क्षिति-तलामल -भूषणाय। तुभ्यं नमस् - त्रिजगत: परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय
27 को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैस् । त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश! ॥ दोषैरूपात्त विविधाश्रय जातगर्वैः । स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥२७॥ 27.को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणै-रशेषैस्- त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश ! दोषै - रुपात्त - विविधाश्रय-जात-गर्वै:, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि
28 उच्चैरशोक तरुसंश्रितमुन्मयूख । माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् ॥ स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त तमोवितानं । बिम्बं रवेरिव पयोधर पार्श्ववर्ति ॥२८॥ 28.उच्चै - रशोक- तरु - संश्रितमुन्मयूख - माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्। स्पष्टोल्लसत्-किरण-मस्त-तमो-वितानं, बिम्बं रवेरिव पयोधर-पाश्र्ववर्ति
29 सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे । विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् ॥ बिम्बं वियद्विलसदंशुलता वितानं । तुंगोदयाद्रि शिरसीव सहस्त्ररश्मेः ॥२९॥ 29.सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे, विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम्। बिम्बं वियद्-विलस - दंशुलता-वितानं तुङ्गोदयाद्रि-शिरसीव सहस्र-रश्मे:
30 कुन्दावदात चलचामर चारुशोभं । विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम् ॥ उद्यच्छशांक शुचिनिर्झर वारिधार । मुच्चैस्तटं सुर गिरेरिव शातकौम्भम् ॥३०॥ 30.कुन्दावदात - चल - चामर-चारु-शोभं, विभ्राजते तव वपु: कलधौत -कान्तम्। उद्यच्छशाङ्क- शुचिनिर्झर - वारि -धार- मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम्
31 छत्रत्रयं तव विभाति शशांककान्त । मुच्चैः स्थितं स्थगित भानुकर प्रतापम् ॥ मुक्ताफल प्रकरजाल विवृद्धशोभं । प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥ 31.छत्रत्रयं - तव - विभाति शशाङ्ककान्त, मुच्चैः स्थितं स्थगित भानुकर - प्रतापम् । मुक्ताफल - प्रकरजाल - विवृद्धशोभं, प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम्
32 गम्भीरतारवपूरित दिग्विभागस् । त्रैलोक्यलोक शुभसंगम भूतिदक्षः ॥ सद्धर्मराजजयघोषण घोषकः सन् । खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी ॥३२॥ 32.गम्भीर - तार - रव-पूरित-दिग्विभागस्- त्रैलोक्य - लोक -शुभ - सङ्गम -भूति-दक्ष:। सद्धर्म -राज - जय - घोषण - घोषक: सन्, खे दुन्दुभि-ध्र्वनति ते यशस: प्रवादी
33 मन्दार सुन्दरनमेरू सुपारिजात । सन्तानकादिकुसुमोत्कर- वृष्टिरुद्धा ॥ गन्धोदबिन्दु शुभमन्द मरुत्प्रपाता । दिव्या दिवः पतित ते वचसां ततिर्वा ॥३३॥ 33.मन्दार - सुन्दर - नमेरु - सुपारिजात- सन्तानकादि - कुसुमोत्कर - वृष्टि-रुद्घा। गन्धोद - बिन्दु- शुभ - मन्द - मरुत्प्रपाता, दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा
34 शुम्भत्प्रभावलय भूरिविभा विभोस्ते । लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती ॥ प्रोद्यद् दिवाकर निरन्तर भूरिसंख्या । दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम सौम्याम् ॥३४॥ 34.शुम्भत्-प्रभा- वलय-भूरि-विभा-विभोस्ते, लोक - त्रये - द्युतिमतां द्युति-माक्षिपन्ती। प्रोद्यद्- दिवाकर-निरन्तर - भूरि -संख्या, दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम्
35 स्वर्गापवर्गगममार्ग विमार्गणेष्टः । सद्धर्मतत्वकथनैक पटुस्त्रिलोक्याः ॥ दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसत्व । भाषास्वभाव परिणामगुणैः प्रयोज्यः ॥३५॥ 35.स्वर्गापवर्ग - गम - मार्ग - विमार्गणेष्ट:, सद्धर्म- तत्त्व - कथनैक - पटुस्-त्रिलोक्या:। दिव्य-ध्वनि-र्भवति ते विशदार्थ-सर्व- भाषास्वभाव-परिणाम-गुणै: प्रयोज्य:
36 उन्निद्रहेम नवपंकज पुंजकान्ती । पर्युल्लसन्नखमयूख शिखाभिरामौ ॥ पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र! धत्तः । पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥३६॥ 36.उन्निद्र - हेम - नव - पङ्कज - पुञ्ज-कान्ती, पर्युल्-लसन्-नख-मयूख-शिखाभिरामौ। पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्त:, पद्मानि तत्र विबुधा: परिकल्पयन्ति
37 इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र । धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य ॥ यादृक् प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा । तादृक् कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ॥३७॥ 37.इत्थं यथा तव विभूति- रभूज् - जिनेन्द्र्र ! धर्मोपदेशन - विधौ न तथा परस्य। यादृक् - प्र्रभा दिनकृत: प्रहतान्धकारा, तादृक्-कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि
38 श्च्योतन्मदाविलविलोल कपोलमूल । मत्तभ्रमद् भ्रमरनाद विवृद्धकोपम् ॥ ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं । दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥३८॥ 38.श्च्यो-तन्-मदाविल-विलोल-कपोल-मूल, मत्त- भ्रमद्- भ्रमर - नाद - विवृद्ध-कोपम्। ऐरावताभमिभ - मुद्धत - मापतन्तं दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम्
39 भिन्नेभ कुम्भ गलदुज्जवल शोणिताक्त। मुक्ताफल प्रकर भूषित भुमिभागः ॥ बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि । नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥३९॥ 39.भिन्नेभ - कुम्भ- गल - दुज्ज्वल-शोणिताक्त, मुक्ता - फल- प्रकरभूषित - भूमि - भाग:। बद्ध - क्रम: क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि, नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते
40 कल्पांतकाल पवनोद्धत वह्निकल्पं । दावानलं ज्वलितमुज्जवलमुत्स्फुलिंगम् ॥ विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं । त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ॥४०॥ 40.कल्पान्त - काल - पवनोद्धत - वह्नि -कल्पं, दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल - मुत्स्फुलिङ्गम्। विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख - मापतन्तं, त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम्
41 रक्तेक्षणं समदकोकिल कण्ठनीलं । क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम् ॥ आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशंकस् । त्वन्नाम नागदमनी हृदि यस्य पुंसः ॥४१॥ 41.रक्तेक्षणं समद - कोकिल - कण्ठ-नीलम्, क्रोधोद्धतं फणिन - मुत्फण - मापतन्तम्। आक्रामति क्रम - युगेण निरस्त - शङ्कस्- त्वन्नाम- नागदमनी हृदि यस्य पुंस:
42 वल्गत्तुरंग गजगर्जित भीमनाद । माजौ बलं बलवतामपि भूपतिनाम्! ॥ उद्यद्दिवाकर मयूख शिखापविद्धं । त्वत्- कीर्तनात् तम इवाशु भिदामुपैति ॥४२॥ 42.वल्गत् - तुरङ्ग - गज - गर्जित - भीमनाद- माजौ बलं बलवता - मपि - भूपतीनाम्। उद्यद् - दिवाकर - मयूख - शिखापविद्धं त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति:
43 कुन्ताग्रभिन्नगज शोणितवारिवाह । वेगावतार तरणातुरयोध भीमे ॥ युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षास् । त्वत्पाद पंकजवनाश्रयिणो लभन्ते ॥४३॥ 43.कुन्ताग्र-भिन्न - गज - शोणित - वारिवाह, वेगावतार - तरणातुर - योध - भीमे। युद्धे जयं विजित - दुर्जय - जेय - पक्षास्- त्वत्पाद-पङ्कज-वनाश्रयिणो लभन्ते:
44 अम्भौनिधौ क्षुभितभीषणनक्रचक्र । पाठीन पीठभयदोल्बणवाडवाग्नौ ॥ रंगत्तरंग शिखरस्थित यानपात्रास् । त्रासं विहाय भवतःस्मरणाद् व्रजन्ति ॥४४॥ 44.अम्भोनिधौ क्षुभित - भीषण - नक्र - चक्र- पाठीन - पीठ-भय-दोल्वण - वाडवाग्नौ। रङ्गत्तरङ्ग -शिखर- स्थित- यान - पात्रास्- त्रासं विहाय भवत: स्मरणाद्-व्रजन्ति :
45 उद्भूतभीषणजलोदर भारभुग्नाः । शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशाः ॥ त्वत्पादपंकज रजोऽमृतदिग्धदेहा । मर्त्या भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥४५॥ 45.उद्भूत - भीषण - जलोदर - भार- भुग्ना:, शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशा:। त्वत्पाद-पङ्कज-रजो - मृत - दिग्ध - देहा:, मत्र्या भवन्ति मकर-ध्वज-तुल्यरूपा:
46 आपाद कण्ठमुरूश्रृंखल वेष्टितांगा । गाढं बृहन्निगडकोटिनिघृष्टजंघाः ॥ त्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः । सद्यः स्वयं विगत बन्धभया भवन्ति ॥४६॥ 46.आपाद - कण्ठमुरु - शृङ्खल - वेष्टिताङ्गा, गाढं-बृहन्-निगड-कोटि निघृष्ट - जङ्घा:। त्वन्-नाम-मन्त्र- मनिशं मनुजा: स्मरन्त:, सद्य: स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति:
47 मत्तद्विपेन्द्र मृगराज दवानलाहि । संग्राम वारिधि महोदर बन्धनोत्थम् ॥ तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव । यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४७॥ 47.मत्त-द्विपेन्द्र- मृग- राज - दवानलाहि- संग्राम-वारिधि-महोदर - बन्ध -नोत्थम्। तस्याशु नाश - मुपयाति भयं भियेव, यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमानधीते:
48 स्तोत्रस्त्रजं तव जिनेन्द्र! गुणैर्निबद्धां । भक्त्या मया विविधवर्णविचित्रपुष्पाम् ॥ धत्ते जनो य इह कंठगतामजस्रं । तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४८॥ 48.स्तोत्र - स्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धाम्, भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम्। धत्ते जनो य इह कण्ठ-गता-मजस्रं, तं मानतुङ्ग-मवशा-समुपैति लक्ष्मी: