Wednesday, August 28, 2024

बह्र-ए-मीर

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उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 59 [ बह्र-ए-"मीर" ]

  उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त  59  [ बह्र-ए-मीर]



[ कुछ मित्रों का आग्रह था कि कुछ ’बह्र-ए-मीर’ पर एक चर्चा की जाय} अत: यह आलेख प्रस्तुत किया जा रहा है]


आप को शायद याद हो जब ’बह्र-ए-मुतक़ारिब’ के औज़ान की चर्चा कर रहा था तो निम्नलिखित 2-वज़न की भी चर्चा की थी

[क] मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ मक़्बूज़ सालिम अल आखिर

 फ़े’लु---फ़ऊलु---फ़ऊलु--फ़ऊलुन

 21------121-----121-----122

 [ फ़े’लु [21] ----मुज़ाहिफ़ असरम है ’फ़ऊलुन [122] का

 [ फ़ऊलु [121] ---मुज़ाहिफ़ मक़्बूज़ है ’फ़ऊलुन[122] का

 यह रुक्न मुसम्मन [8 रुक्न एक शे’र में] है और इसका ’मुज़ा अ’फ़ [ दो गुना ] भी संभव है -यानी 16-रुक्नी अश’आर भी कहे जा सकते हैं इस वज़्न पर


 यानी मुसम्मन मुज़ाहिफ़    होगा   क // क  दुरुस्त है


[ख]   मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ मक़्बूज़ महज़ूफ़

 फ़े’लु---फ़ऊलु---फ़ऊलु--फ़ अ’ल

 21------121-----121-----12

 [ फ़ अ’ल [12] महज़ूफ़ है फ़ऊलुन [122] का

 यह रुक्न भी  मुसम्मन [8 रुक्न एक शे’र में] है और इसका ’मुज़ा अ’फ़ [ दो गुना ] भी संभव है -यानी 16-रुक्नी अश’आर भी कहे जा सकते हैं इस वज़्न पर


 यानी मुसम्मन मुज़ाहिफ़    होगा   ख // ख  दुरुस्त है


 तब   क  //   ख क्या होगा ?-


-यह वज़न जो किसी का ’मुज़ाअ’फ़’ नहीं होगा । न [क] वज़न का ,न [ख] वज़न का -मगर होगा 16-रुक्नी बह्र ही।


यही बह्र-ए-मीर है ।

 कैसे ?

 यह नाम शम्स्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब का दिया हुआ है जो उचित भी है। कारण कि क्लासिकल अरूज़ की किताबों में ऐसी कोई बहर न थी जो दो मुख्तलिफ़ वज़न से दो मुख्तलिफ़ हिस्सों से बने हो।

मीर तक़ी मीर ने अपनी बहुत सी ग़ज़ले इसी बह्र में कहीं है ।अत: लोगों में यह बह्र इसी नाम से   जानी-पहचानी जाती है । अमेरिकन आलिमा मोहतरमा Frances W.Pritchett -साहिबा ,.शम्स्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ,डा0 आरिफ़ हसन ख़ान आदि कई विद्वानों ने ’मीर’ की शायरी पर बहुत काम किया है। फ़ारूक़ी साहब तो ख़ैर स्वयं  में ही एक उर्दू साहित्य के महान प्रामाणिक समीक्षक हैं ।


अब  क//ख को विस्तार से देखते है


 मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ मक़्बूज़ सालिम अल आखिर //मुतक़ारिब मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ मक़्बूज़ महज़ूफ़

 फ़े’लु---फ़ऊलु---फ़ऊलु--फ़ऊलुन  //फ़े’लु---फ़ऊलु---फ़ऊलु--फ़ अ’ल

 21------121-----121-----122     // 21------121-----121-----12

 नाम इतना लम्बा हो गया तो उसे संक्षिप्त कर के  अब आगे से मीर की बह्र या बह्र-ए-मीर ही कहेंगे


   बह्र-ए-मीर

 फ़े’लु---फ़ऊलु---फ़ऊलु--फ़ऊलुन  //फ़े’लु---फ़ऊलु---फ़ऊलु--फ़ अ’ल

 21------121-----121-----122     // 21------121-----121-----12


इस वज़न को ध्यान से देखें तो बहुत सी बाते आप को स्पष्ट हो जायेंगी


[1] इस वज़न का  पहला हिस्सा  और ’दूसरा हिस्सा’ लगभग समान है । बस दूसरे हिस्से में एक ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़’ कम है । यानी पहले हिस्से में  ’मात्रा भार" 16 और दूसरे हिस्से में 14 है


 [उर्दू शायरी मात्रा से नहीं अर्कान के वज़न से चलती है -बस समझने /समझाने की गरज़ से लिख दिया]


[2] दो -consecutive रुक्न में कई जगह  --तीन मुतहर्रिक- एक साथ आ रहे हैं अत: इन पर ’तख़्नीक़’ का अमल हो सकता है । मैं समझता हूँ कि तस्कीन और तख़्नीक़ का अमल आप समझते होंगे। जो पाठकगण अभी अभी इस ब्लाग पर आये हैं उनक्र लिए संक्षिप्त रूप से एक बार फिर बता दे रहा हूँ । ’किसी ’मुज़ाहिफ़ बह्र’ में यदि दो-consecutive रुक्न में ’तीन मुतहर्रिक हर्फ़ ’ एक साथ आ जाये तो बीच वाला मुतहर्रिक हर्फ़ ’साकिन’ हो जाता है और एक नया वज़न बरामद होता है} और इस नए बह्र और पुराने बह्र -दोनो का वज़न बराबर होगा और आपस में ’मुतबादिल’[ यानी आपस मे बदले जा सकते है] होगा----मगर शर्त यह कि बह्र न बदल जाए।

इस तख़्नीक़ के अमल से आप जानते है कि कितने "मुतबादिल औज़ान" बरामद हो सकते है ?

पहले हिस्से से   16 औज़ान

दूसरे हिस्से से भी   16 औज़ान

अत: कुल मिला कर ३२ -औज़ान। आइए देखते हैं

--------पहला हिस्सा--------------//------- --------दूसरा हिस्सा---

[A]     21----121---121----122                      [I]   21-----121---121---12

[B]     21----121---122----22                        [J]  21----121---122----2

[C]  21---122---21-----122                          [K] 21-----122---21---12

[D] 22---21---121-----122                           [L] 22----21------121---12

[E]     21----122---22-----22                       [M] 21----122----22-----2

[F] 22----21-----122---22                            [N] 22-----21-----122---2

[G] 22----22-----21-----122                        [O]  22-----22-----21----12

[H] 22----22-----22-----22                          [P] 22----22-----22----2

मिसरा के पहले हिस्से में--


 बज़ाहिर -अरूज़ और ज़र्ब मे 4-रुक्न तो सालिम फ़ऊलुन [122] पर गिरेगा


और  4-रुक्न  फ़े’लुन [22] पर गिरेगा अरूज़ और ज़र्ब में -फ़ऊलुन [122] की जगह इसका मुस्बीग़ मुज़ाहिफ़ ’फ़ऊलान[1221] लाया जा सकता है और फ़े’लुन [22] की जगह फ़ेलान [221] भी लाया जा सकता है  जिसे  अगर कहीं ज़रूरत पड़ी तो क्रमश: a--b-c-d-e-f-g-h से दिखायेंगे


उसी प्रकार ,मिसरा के दूसरे हिस्से में :-


अरूज़/ज़र्ब में 4-रुक्न तो ’फ़ अ’ल’ [12] पर गिरेगा,और 4-रुक्न ’फ़े’[2] पर गिरेगा

अच्छा ,पहले हिस्से की तरह --दूसरे हिस्से में मिसरा के आख़िर में -एक- साकिन बढ़ाने से  शे’र के वज़न पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा तो इस प्रकार से 8-वज़न और बरामद हो सकते हैं ।और यह सभी वज़न आपस में ’मुतबादिल’ -यानी एक दूसरे की जगह बदले जा सकते हैं।अगर ज़रूरत पड़ी तो इन्हे  क्रमश : i-- j--k-l-m-n-o-p-से दिखाया जायेगा।

अत: मीर की ऐसी गज़लें [जो मीर की बह्र पर कही गई है] तो उन के  मिसरा का पहला हिस्सा -इन्ही 16-औज़ान में से  और दूसरा हिस्सा इन्ही किसी न किसी एक वज़न पर ज़रूर होगा।

यूँ मीर के पहले भी यह दोनों बह्र  A & B तो अरूज़ में पहले से ही थी और इनकी मुज़ाअ’फ़ भी थी अलग-अलग रूप से । आप यूँ कहें की ’मीर’ ने इन दोनो बह्र को मिला कर  A + B कर दिया जिससे मीर की बह्र कहते हैं अत: यह १६- रुक्नी बह्र तो हुई मगर किसी बह्र की ’मुज़ाअ’फ़’ [दो गुनी] न हुई।

ख़ैर

अब ’मीर’ की कोई एक ग़ज़ल लेते हैं और उसकी तक़्तीअ भी देखते है --जिससे बात साफ़ हो जाए

मीर की एक बहुत मशहूर ग़ज़ल है जिसे आप सभी ने सुन रखा होगा


पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है

जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है


आशिक़ सा तो सादा कोई ,और न होगा  दुनिया में

जी के ज़ियां को इश्क़ में उसके अपना वारा जाने है


क्या क्या फ़ितने सर पर उसके लाता है माशूक़ अपना

जिस बे दिल बेताब-ओ-तवां को इश्क़ का मारा जाने है


अब इन अश’आर क्र्र तक़्तीअ कर के देखते है । पहले तो ’अरूज़ी वक़्फ़ा’ लगाते है जो ऐसी बहर में लाज़िमी है और मिसरा को दो-हिस्से में बाँट कर देखा जा सके

  2  2--/  2 2  -/-22-/-22  //    21- /  122 -/-22 /-2     =- H   //--M

पत् ता/  पत् ता / बूटा/ बूटा // हाल/  हमारा/ जाने/ है

21-/-1 2 2  /  21     / 122    //  21  / 1 2 2 / 22   /2      = C  // M

जाने /न जाने/ गुल ही/  न जाने// बाग़ / तो सारा/ जाने/ है


  22       /22      /22    /22  // 21 / 122    / 22     /2      = H //  M

आशिक़ /सा तो /सादा /कोई //और/ न होगा/ दुनिया /में

   2   1 /  1 2 2  / 2 1  / 1  2 2  //    2 2  / 2 2 / 2 2 /2 = C // Q

जी के /ज़ियां को/ इश्क़/ में उसके// अपना /वारा /जाने/ है


  2     2   /  2    2  /  2  2   / 2  2  //  2 2   / २ २ /  २ २    /२ =H  // P

क्या क्या/  फ़ित ने / सर पर /उसके //लाता /है मा /शुक़ अप/ना

2      2  /  2  2  / 2 1      / 1 2  2 //  21 / 1  2   2 / 22 /2  =  G // M   

जिस बे /दिल बे/ताब-ओ/-तवां को// इश्क़ /का मारा /जाने/ है


इसी प्रकार मीर की  ऐसी और  ग़ज़लों की भी तक़्तीअ’ की जा सकती है और समझी जा सकती हैं।


बाद के और भी शायरों ने भी  इस बह्र में शायरी की है जो काफी आहंगखेज़ है

2) Link



3) Link

Technical Name: No specific technical name, simply called Behr-e-Mir as Mir Taqi Mir was the one who experimented most with this meter, which otherwise is not present in Persian or Arabic prosody.


Metrical Feet (Arkaan) and Afaa’iil: This meter does not exist in Arabic or Persian poetry. It can be represented in terms of standard feet (arkaans), but given the large number of variations allowed in this meter, I am not listing them down


Syllable Sequence: = ( = ) / = ( = ) / = ( = ) / = = // = ( = ) / = ( = ) / = ( = ) / = (any even numbered long syllable can be broken into two shorts, some of the = = feet can broken into - = -)


Usage: 2 ghazals & 1 nazm; 24 couplets


Example:


ulTii ho ga.ii.n sab tadbiire.n kuchh na davaa ne kaam kiya

dekha is biimari-e-dil ne aaKhir kaam tamaam kiya

(Mir Taqi Mir)

hamne taKhallus 'Naaqid' rakkha yaktaaii kii chaahat me.n

tab jaana kuchh aur kalaam is naam se hai mansuub hua

(Naaqid)

4) Link






5)